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हिन्दुओ के चार प्रमुख धामों में एक जगन्नाथपूरी धाम का इतिहास और मंदिर के दस चमत्कार,,,,By वनिता कासनियां पंजाब माना जाता है कि भगवान विष्णु जब चारों धामों पर बसे अपने धामों की यात्रा पर जाते हैं तो हिमालय की ऊंची चोटियों पर बने अपने धाम बद्रीनाथ में स्नान करते हैं। पश्चिम में गुजरात के द्वारिका में वस्त्र पहनते हैं। पुरी में भोजन करते हैं और दक्षिण में रामेश्‍वरम में विश्राम करते हैं। द्वापर के बाद भगवान कृष्ण पुरी में निवास करने लगे और बन गए जग के नाथ अर्थात जगन्नाथ। पुरी का जगन्नाथ धाम चार धामों में से एक है। यहां भगवान जगन्नाथ बड़े भाई बलभद्र और बहन सुभद्रा के साथ विराजते हैं।हिन्दुओं की प्राचीन और पवित्र 7 नगरियों में पुरी उड़ीसा राज्य के समुद्री तट पर बसा है। जगन्नाथ मंदिर विष्णु के 8वें अवतार श्रीकृष्ण को समर्पित है। भारत के पूर्व में बंगाल की खाड़ी के पूर्वी छोर पर बसी पवित्र नगरी पुरी उड़ीसा की राजधानी भुवनेश्वर से थोड़ी दूरी पर है। आज का उड़ीसा प्राचीनकाल में उत्कल प्रदेश के नाम से जाना जाता था। यहां देश की समृद्ध बंदरगाहें थीं, जहां जावा, सुमात्रा, इंडोनेशिया, थाईलैंड और अन्य कई देशों का इन्हीं बंदरगाह के रास्ते व्यापार होता था।पुराणों में इसे धरती का वैकुंठ कहा गया है। यह भगवान विष्णु के चार धामों में से एक है। इसे श्रीक्षेत्र, श्रीपुरुषोत्तम क्षेत्र, शाक क्षेत्र, नीलांचल, नीलगिरि और श्री जगन्नाथ पुरी भी कहते हैं। यहां लक्ष्मीपति विष्णु ने तरह-तरह की लीलाएं की थीं। ब्रह्म और स्कंद पुराण के अनुसार यहां भगवान विष्णु पुरुषोत्तम नीलमाधव के रूप में अवतरित हुए और सबर जनजाति के परम पूज्य देवता बन गए। सबर जनजाति के देवता होने के कारण यहां भगवान जगन्नाथ का रूप कबीलाई देवताओं की तरह है। पहले कबीले के लोग अपने देवताओं की मूर्तियों को काष्ठ से बनाते थे। जगन्नाथ मंदिर में सबर जनजाति के पुजारियों के अलावा ब्राह्मण पुजारी भी हैं। ज्येष्ठ पूर्णिमा से आषाढ़ पूर्णिमा तक सबर जाति के दैतापति जगन्नाथजी की सारी रीतियां करते हैं। पुराण के अनुसार नीलगिरि में पुरुषोत्तम हरि की पूजा की जाती है। पुरुषोत्तम हरि को यहां भगवान राम का रूप माना गया है। सबसे प्राचीन मत्स्य पुराण में लिखा है कि पुरुषोत्तम क्षेत्र की देवी विमला है और यहां उनकी पूजा होती है। रामायण के उत्तराखंड के अनुसार भगवान राम ने रावण के भाई विभीषण को अपने इक्ष्वाकु वंश के कुल देवता भगवान जगन्नाथ की आराधना करने को कहा। आज भी पुरी के श्री मंदिर में विभीषण वंदापना की परंपरा कायम है।स्कंद पुराण में पुरी धाम का भौगोलिक वर्णन मिलता है। स्कंद पुराण के अनुसार पुरी एक दक्षिणवर्ती शंख की तरह है और यह 5 कोस यानी 16 किलोमीटर क्षेत्र में फैला है। माना जाता है कि इसका लगभग 2 कोस क्षेत्र बंगाल की खाड़ी में डूब चुका है। इसका उदर है समुद्र की सुनहरी रेत जिसे महोदधी का पवित्र जल धोता रहता है। सिर वाला क्षेत्र पश्चिम दिशा में है जिसकी रक्षा महादेव करते हैं। शंख के दूसरे घेरे में शिव का दूसरा रूप ब्रह्म कपाल मोचन विराजमान है। माना जाता है कि भगवान ब्रह्मा का एक सिर महादेव की हथेली से चिपक गया था और वह यहीं आकर गिरा था, तभी से यहां पर महादेव की ब्रह्म रूप में पूजा करते हैं। शंख के तीसरे वृत्त में मां विमला और नाभि स्थल में भगवान जगन्नाथ रथ सिंहासन पर विराजमान है।मंदिर का इतिहास : इस मंदिर का सबसे पहला प्रमाण महाभारत के वनपर्व में मिलता है। कहा जाता है कि सबसे पहले सबर आदिवासी विश्‍ववसु ने नीलमाधव के रूप में इनकी पूजा की थी। आज भी पुरी के मंदिरों में कई सेवक हैं जिन्हें दैतापति के नाम से जाना जाता है।राजा इंद्रदयुम्न ने बनवाया था यहां मंदिर : राजा इंद्रदयुम्न मालवा का राजा था जिनके पिता का नाम भारत और माता सुमति था। राजा इंद्रदयुम्न को सपने में हुए थे जगन्नाथ के दर्शन। कई ग्रंथों में राजा इंद्रदयुम्न और उनके यज्ञ के बारे में विस्तार से लिखा है। उन्होंने यहां कई विशाल यज्ञ किए और एक सरोवर बनवाया। एक रात भगवान विष्णु ने उनको सपने में दर्शन दिए और कहा नीलांचल पर्वत की एक गुफा में मेरी एक मूर्ति है उसे नीलमाधव कहते हैं। ‍तुम एक मंदिर बनवाकर उसमें मेरी यह मूर्ति स्थापित कर दो। राजा ने अपने सेवकों को नीलांचल पर्वत की खोज में भेजा। उसमें से एक था ब्राह्मण विद्यापति। विद्यापति ने सुन रखा था कि सबर कबीले के लोग नीलमाधव की पूजा करते हैं और उन्होंने अपने देवता की इस मूर्ति को नीलांचल पर्वत की गुफा में छुपा रखा है। वह यह भी जानता था कि सबर कबीले का मुखिया विश्‍ववसु नीलमाधव का उपासक है और उसी ने मूर्ति को गुफा में छुपा रखा है। चतुर विद्यापति ने मुखिया की बेटी से विवाह कर लिया। आखिर में वह अपनी पत्नी के जरिए नीलमाधव की गुफा तक पहुंचने में सफल हो गया। उसने मूर्ति चुरा ली और राजा को लाकर दे दी। विश्‍ववसु अपने आराध्य देव की मूर्ति चोरी होने से बहुत दुखी हुआ। अपने भक्त के दुख से भगवान भी दुखी हो गए। भगवान गुफा में लौट गए, लेकिन साथ ही राज इंद्रदयुम्न से वादा किया कि वो एक दिन उनके पास जरूर लौटेंगे बशर्ते कि वो एक दिन उनके लिए विशाल मंदिर बनवा दे। राजा ने मंदिर बनवा दिया और भगवान विष्णु से मंदिर में विराजमान होने के लिए कहा। भगवान ने कहा कि तुम मेरी मूर्ति बनाने के लिए समुद्र में तैर रहा पेड़ का बड़ा टुकड़ा उठाकर लाओ, जो द्वारिका से समुद्र में तैरकर पुरी आ रहा है। राजा के सेवकों ने उस पेड़ के टुकड़े को तो ढूंढ लिया लेकिन सब लोग मिलकर भी उस पेड़ को नहीं उठा पाए। तब राजा को समझ आ गया कि नीलमाधव के अनन्य भक्त सबर कबीले के मुखिया विश्‍ववसु की ही सहायता लेना पड़ेगी। सब उस वक्त हैरान रह गए, जब विश्ववसु भारी-भरकम लकड़ी को उठाकर मंदिर तक ले आए।अब बारी थी लकड़ी से भगवान की मूर्ति गढ़ने की। राजा के कारीगरों ने लाख कोशिश कर ली लेकिन कोई भी लकड़ी में एक छैनी तक भी नहीं लगा सका। तब तीनों लोक के कुशल कारीगर भगवान विश्‍वकर्मा एक बूढ़े व्यक्ति का रूप धरकर आए। उन्होंने राजा को कहा कि वे नीलमाधव की मूर्ति बना सकते हैं, लेकिन साथ ही उन्होंने अपनी शर्त भी रखी कि वे 21 दिन में मूर्ति बनाएंगे और अकेले में बनाएंगे। कोई उनको बनाते हुए नहीं देख सकता। उनकी शर्त मान ली गई। लोगों को आरी, छैनी, हथौड़ी की आवाजें आती रहीं। राजा इंद्रदयुम्न की रानी गुंडिचा अपने को रोक नहीं पाई। वह दरवाजे के पास गई तो उसे कोई आवाज सुनाई नहीं दी। वह घबरा गई। उसे लगा बूढ़ा कारीगर मर गया है। उसने राजा को इसकी सूचना दी। अंदर से कोई आवाज सुनाई नहीं दे रही थी तो राजा को भी ऐसा ही लगा। सभी शर्तों और चेतावनियों को दरकिनार करते हुए राजा ने कमरे का दरवाजा खोलने का आदेश दिया। जैसे ही कमरा खोला गया तो बूढ़ा व्यक्ति गायब था और उसमें 3 अधूरी ‍मूर्तियां मिली पड़ी मिलीं। भगवान नीलमाधव और उनके भाई के छोटे-छोटे हाथ बने थे, लेकिन उनकी टांगें नहीं, जबकि सुभद्रा के हाथ-पांव बनाए ही नहीं गए थे। राजा ने इसे भगवान की इच्छा मानकर इन्हीं अधूरी मूर्तियों को स्थापित कर दिया। तब से लेकर आज तक तीनों भाई बहन इसी रूप में विद्यमान हैं। वर्तमान में जो मंदिर है वह 7वीं सदी में बनवाया था। हालांकि इस मंदिर का निर्माण ईसा पूर्व 2 में भी हुआ था। यहां स्थित मंदिर 3 बार टूट चुका है। 1174 ईस्वी में ओडिसा शासक अनंग भीमदेव ने इसका जीर्णोद्धार करवाया था। मुख्‍य मंदिर के आसपास लगभग 30 छोटे-बड़े मंदिर स्थापित हैं। पहला चमत्कार... हवा के विपरीत लहराता ध्वज : श्री जगन्नाथ मंदिर के ऊपर स्थापित लाल ध्वज सदैव हवा के विपरीत दिशा में लहराता है। ऐसा किस कारण होता है यह तो वैज्ञानिक ही बता सकते हैं लेकिन यह निश्‍चित ही आश्चर्यजनक बात है। यह भी आश्‍चर्य है कि प्रतिदिन सायंकाल मंदिर के ऊपर स्थापित ध्वज को मानव द्वारा उल्टा चढ़कर बदला जाता है। ध्वज भी इतना भव्य है कि जब यह लहराता है तो इसे सब देखते ही रह जाते हैं। ध्वज पर शिव का चंद्र बना हुआ है।दूसरा चमत्कार... गुंबद की छाया नहीं बनती : यह दुनिया का सबसे भव्य और ऊंचा मंदिर है। यह मंदिर 4 लाख वर्गफुट में क्षेत्र में फैला है और इसकी ऊंचाई लगभग 214 फुट है। मंदिर के पास खड़े रहकर इसका गुंबद देख पाना असंभव है। मुख्य गुंबद की छाया दिन के किसी भी समय अदृश्य ही रहती है। हमारे पूर्वज कितने बड़े इंजीनियर रहे होंगे यह इस एक मंदिर के उदाहरण से समझा जा सकता है। पुरी के मंदिर का यह भव्य रूप 7वीं सदी में निर्मित किया गया। तीसरा चमत्कार... चमत्कारिक सुदर्शन चक्र : पुरी में किसी भी स्थान से आप मंदिर के शीर्ष पर लगे सुदर्शन चक्र को देखेंगे तो वह आपको सदैव अपने सामने ही लगा दिखेगा। इसे नीलचक्र भी कहते हैं। यह अष्टधातु से निर्मित है और अति पावन और पवित्र माना जाता है। चौथा चमत्कार... हवा की दिशा : सामान्य दिनों के समय हवा समुद्र से जमीन की तरफ आती है और शाम के दौरान इसके विपरीत, लेकिन पुरी में इसका उल्टा होता है। अधिकतर समुद्री तटों पर आमतौर पर हवा समुद्र से जमीन की ओर आती है, लेकिन यहां हवा जमीन से समुद्र की ओर जाती है। पांचवां चमत्कार... गुंबद के ऊपर नहीं उड़ते पक्षी : मंदिर के ऊपर गुंबद के आसपास अब तक कोई पक्षी उड़ता हुआ नहीं देखा गया। इसके ऊपर से विमान नहीं उड़ाया जा सकता। मंदिर के शिखर के पास पक्षी उड़ते नजर नहीं आते, जबकि देखा गया है कि भारत के अधिकतर मंदिरों के गुंबदों पर पक्षी बैठ जाते हैं या आसपास उड़ते हुए नजर आते हैं। छठा चमत्कार... दुनिया का सबसे बड़ा रसोईघर : 500 रसोइए 300 सहयोगियों के साथ बनाते हैं भगवान जगन्नाथजी का प्रसाद। लगभग 20 लाख भक्त कर सकते हैं यहां भोजन। कहा जाता है कि मंदिर में प्रसाद कुछ हजार लोगों के लिए ही क्यों न बनाया गया हो लेकिन इससे लाखों लोगों का पेट भर सकता है। मंदिर के अंदर पकाने के लिए भोजन की मात्रा पूरे वर्ष के लिए रहती है। प्रसाद की एक भी मात्रा कभी भी व्यर्थ नहीं जाती।मंदिर की रसोई में प्रसाद पकाने के लिए 7 बर्तन एक-दूसरे पर रखे जाते हैं और सब कुछ लकड़ी पर ही पकाया जाता है। इस प्रक्रिया में शीर्ष बर्तन में सामग्री पहले पकती है फिर क्रमश: नीचे की तरफ एक के बाद एक पकती जाती है अर्थात सबसे ऊपर रखे बर्तन का खाना पहले पक जाता है। है न चमत्कार! सातवां चमत्कार... समुद्र की ध्वनि : मंदिर के सिंहद्वार में पहला कदम प्रवेश करने पर ही (मंदिर के अंदर से) आप सागर द्वारा निर्मित किसी भी ध्वनि को नहीं सुन सकते। आप (मंदिर के बाहर से) एक ही कदम को पार करें, तब आप इसे सुन सकते हैं। इसे शाम को स्पष्ट रूप से अनुभव किया जा सकता है।इसी तरह मंदिर के बाहर स्वर्ग द्वार है, जहां पर मोक्ष प्राप्ति के लिए शव जलाए जाते हैं लेकिन जब आप मंदिर से बाहर निकलेंगे तभी आपको लाशों के जलने की गंध महसूस होगी। आठवां चमत्कार... रूप बदलती मूर्ति : यहां श्रीकृष्ण को जगन्नाथ कहते हैं। जगन्नाथ के साथ उनके भाई बलभद्र (बलराम) और बहन सुभद्रा विराजमान हैं। तीनों की ये मूर्तियां काष्ठ की बनी हुई हैं। यहां प्रत्येक 12 साल में एक बार होता है प्रतिमा का नव कलेवर। मूर्तियां नई जरूर बनाई जाती हैं लेकिन आकार और रूप वही रहता है। कहा जाता है कि उन मूर्तियों की पूजा नहीं होती, केवल दर्शनार्थ रखी गई हैं। नौवां चमत्कार... विश्‍व की सबसे बड़ी रथयात्रा : आषाढ़ माह में भगवान रथ पर सवार होकर अपनी मौसी रानी गुंडिचा के घर जाते हैं। यह रथयात्रा 5 किलो‍मीटर में फैले पुरुषोत्तम क्षेत्र में ही होती है। रानी गुंडिचा भगवान जगन्नाथ के परम भक्त राजा इंद्रदयुम्न की पत्नी थी इसीलिए रानी को भगवान जगन्नाथ की मौसी कहा जाता है।अपनी मौसी के घर भगवान 8 दिन रहते हैं। आषाढ़ शुक्ल दशमी को वापसी की यात्रा होती है। भगवान जगन्नाथ का रथ नंदीघोष है। देवी सुभद्रा का रथ दर्पदलन है और भाई बलभद्र का रक्ष तल ध्वज है। पुरी के गजपति महाराज सोने की झाड़ू बुहारते हैं जिसे छेरा पैररन कहते हैं। दसवां चमत्कार... हनुमानजी करते हैं जगन्नाथ की समुद्र से रक्षा : माना जाता है कि 3 बार समुद्र ने जगन्नाथजी के मंदिर को तोड़ दिया था। कहते हैं कि महाप्रभु जगन्नाथ ने वीर मारुति (हनुमानजी) को यहां समुद्र को नियंत्रित करने हेतु नियुक्त किया था, परंतु जब-तब हनुमान भी जगन्नाथ-बलभद्र एवं सुभद्रा के दर्शनों का लोभ संवरण नहीं कर पाते थे।वे प्रभु के दर्शन के लिए नगर में प्रवेश कर जाते थे, ऐसे में समुद्र भी उनके पीछे नगर में प्रवेश कर जाता था। केसरीनंदन हनुमानजी की इस आदत से परेशान होकर जगन्नाथ महाप्रभु ने हनुमानजी को यहां स्वर्ण बेड़ी से आबद्ध कर दिया। यहां जगन्नाथपुरी में ही सागर तट पर बेदी हनुमान का प्राचीन एवं प्रसिद्ध मंदिर है। भक्त लोग बेड़ी में जगड़े हनुमानजी के दर्शन करने के लिए आते हैं। अंत में जानिए मंदिर के बारे में कुछ अज्ञात बातें...* महान सिख सम्राट महाराजा रणजीत सिंह ने इस मंदिर को प्रचुर मात्रा में स्वर्ण दान किया था, जो कि उनके द्वारा स्वर्ण मंदिर, अमृतसर को दिए गए स्वर्ण से कहीं अधिक था। * पांच पांडव भी अज्ञातवास के दौरान भगवान जगन्नाथ के दर्शन करने आए थे। श्री मंदिर के अंदर पांडवों का स्थान अब भी मौजूद है। भगवान जगन्नाथ जब चंदन यात्रा करते हैं तो पांच पांडव उनके साथ नरेन्द्र सरोवर जाते हैं। * कहते हैं कि ईसा मसीह सिल्क रूट से होते हुए जब कश्मीर आए थे तब पुन: बेथलेहम जाते वक्त उन्होंने भगवान जगन्नाथ के दर्शन किए थे। * 9वीं शताब्दी में आदिशंकराचार्य ने यहां की यात्रा की थी और यहां पर उन्होंने चार मठों में से एक गोवर्धन मठ की स्थापना की थी। * इस मंदिर में गैर-भारतीय धर्म के लोगों का प्रवेश प्रतिबंधित है। माना जाता है कि ये प्रतिबंध कई विदेशियों द्वारा मंदिर और निकटवर्ती क्षेत्रों में घुसपैठ और हमलों के कारण लगाए गए हैं। पूर्व में मंदिर को क्षति पहुंचाने के प्रयास किए जाते रहे हैं।।। हर हर महादेव शम्भो काशी विश्वनाथ वन्दे।।जय हो!!!! जय सिया राम 🚩🚩🚩🚩

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"शिवरात्रि से जुड़ी कथा"#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान ‘#महाशिवरात्रि’ के विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं, कुछ विद्वानों का मत है कि आज के ही दिन शिवजी और माता पार्वती विवाह-सूत्र में बंधे थे जबकि अन्य कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि आज के ही दिन शिवजी ने ‘कालकूट’ नाम का विष पिया था जो सागरमंथन के समय समुद्र से निकला था। ज्ञात है कि यह समुद्रमंथन देवताओं और असुरों ने अमृत-प्राप्ति के लिए किया था। एक शिकारी की कथा भी इस त्यौहार के साथ जुड़ी हुई है कि कैसे उसके अनजाने में की गई पूजा से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उस पर अपनी असीम कृपा की थी। यह कथा पौराणिक “शिव पुराण” में भी संकलित है। प्राचीन काल में, किसी जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार करता तथा अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिव-रात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजने के बाद भी उसे कोई शिकार न मिला। उसके बच्चों, पत्नी एवं माता-पिता को भूखा रहना पड़ेगा इस बात से वह चिंतित हो गया। #सूर्यास्त होने पर वह एक जलाशय के समीप गया, और वहाँ एक घाट के किनारे एक पेड़ पर थोड़ा सा जल पीने के लिए लेकर, चढ़ गया। उसे पूरी उम्मीद थी कि कोई न कोई जानवर अपनी प्यास बुझाने के लिए यहाँ जरूर आयेगा। वह पेड़ ‘बेल-पत्र’ का था और उसी पेड़ के नीचे शिवलिंग भी था जो सूखे बेलपत्रों से ढके होने के कारण दिखाई नहीं दे रहा था। रात का पहला प्रहर बीतने से पहले एक हिरणी वहाँ पर पानी पीने के लिए आई। उसे देखते ही शिकारी ने अपने धनुष पर बाण साधा। ऐसा करने में, उसके हाथ के धक्के से कुछ पत्ते एवं जल की कुछ बूंदे नीचे बने शिवलिंग पर गिरीं और अनजाने में ही शिकारी की पहले प्रहर की पूजा हो गयी। हिरणी ने जब पत्तों की खड़खड़ाहट सुनी, तो घबरा कर ऊपर की ओर देखा, और भयभीत हो कर, शिकारी से, काँपते हुए स्वर में बोली, ‘मुझे मत मारो।’ शिकारी ने कहा कि वह और उसका परिवार भूखा है इसलिए वह उसे नहीं छोड़ सकता। हिरणी ने वादा किया कि वह अपने बच्चों को अपने स्वामी को सौंप कर लौट आयेगी। तब वह उसका शिकार कर ले। शिकारी को उसकी बात का विश्वास नहीं हो रहा था। उसने फिर से शिकारी को यह कहते हुए अपनी बात का भरोसा करवाया कि जैसे सत्य पर ही धरती टिकी है; समुद्र मर्यादा में रहता है और झरनों से जल-धाराएँ गिरा करती हैं वैसे ही वह भी सत्य बोल रही है। क्रूर होने के बावजूद भी, शिकारी को उस पर दया आ गयी और उसने ‘जल्दी लौटना’ कहकर, उस हिरनी को जाने दिया। थोड़ी ही देर बाद एक और हिरनी वहाँ पानी पीने आई, शिकारी सावधान हो गया, तीर साधने लगा और ऐसा करते हुए, उसके हाथ के धक्के से फिर पहले की ही तरह थोडा जल और कुछ बेलपत्र नीचे शिवलिंग पर जा गिरे और अनायास ही शिकारी की दूसरे प्रहर की पूजा भी हो गयी। इस हिरनी ने भी भयभीत हो कर, शिकारी से जीवनदान की याचना की लेकिन उसके अस्वीकार कर देने पर, हिरनी ने उसे लौट आने का वचन, यह कहते हुए दिया कि उसे ज्ञात है कि जो वचन दे कर पलट जाता है, उसका अपने जीवन में संचित पुण्य नष्ट हो जाया करता है। उस शिकारी ने पहले की तरह, इस हिरनी के वचन का भी भरोसा कर उसे जाने दिया। अब तो वह इसी चिंता से व्याकुल हो रहा था कि उन में से शायद ही कोई हिरनी लौट के आये और अब उसके परिवार का क्या होगा। इतने में ही उसने जल की ओर आते हुए एक हिरण को देखा, उसे देखकर शिकारी बड़ा प्रसन्न हुआ। अब फिर धनुष पर बाण चढाने से उसकी तीसरे प्रहर की पूजा भी स्वतः ही संपन्न हो गयी लेकिन पत्तों के गिरने की आवाज से वह हिरन सावधान हो गया। उसने शिकारी को देखा और पूछा, “तुम क्या करना चाहते हो ?” वह बोला, “अपने कुटुंब को भोजन देने के लिए तुम्हारा वध करूँगा।” वह मृग प्रसन्न हो कर कहने लगा, “मैं धन्य हूँ कि मेरा यह शरीर किसी के काम आएगा, परोपकार से मेरा जीवन सफल हो जायेगा पर कृपया कर अभी मुझे जाने दो ताकि मैं अपने बच्चों को उनकी माता के हाथ में सौंप कर और उन सबको धीरज बँधा कर यहाँ लौट आऊँ।” शिकारी का ह्रदय, उसके पापपुंज नष्ट हो जाने से अब तक शुद्ध हो गया था इसलिए वह विनयपूर्वक बोला, "जो-जो यहाँ आये, सभी बातें बनाकर चले गये और अभी तक नहीं लौटे, यदि तुम भी झूठ बोलकर चले जाओगे, तो मेरे परिजनों का क्या होगा ?” अब हिरन ने यह कहते हुए उसे अपने सत्य बोलने का भरोसा दिलवाया कि यदि वह लौटकर न आये; तो उसे वह पाप लगे जो उसे लगा करता है जो सामर्थ्य रहते हुए भी दूसरे का उपकार नहीं करता। शिकारी ने उसे भी यह कहकर जाने दिया कि ‘शीघ्र लौट आना।’ रात्रि का अंतिम प्रहर शुरू होते ही उस शिकारी के हर्ष की सीमा न थी क्योंकि उसने उन सब हिरन-हिरनियों को अपने बच्चों सहित एकसाथ आते देख लिया था। उन्हें देखते ही उसने अपने धनुष पर बाण रखा और पहले की ही तरह उसकी चौथे प्रहर की भी शिव-पूजा संपन्न हो गयी। अब उस शिकारी के शिव कृपा से सभी पाप भस्म हो गये इसलिए वह सोचने लगा, "ओह, ये पशु धन्य हैं जो ज्ञानहीन हो कर भी अपने शरीर से परोपकार करना चाहते हैं लेकिन धिक्कार है मेरे जीवन को कि मैं अनेक प्रकार के कुकृत्यों से अपने परिवार का पालन करता रहा।" अब उसने अपना बाण रोक लिया तथा मृगों से कहा की वे सब धन्य है तथा उन्हें वापिस जाने दिया। उसके ऐसा करने पर भगवान् शंकर ने प्रसन्न हो कर तत्काल उसे अपने दिव्य स्वरूप का दर्शन करवाया तथा उसे सुख-समृद्धि का वरदान देकर “गुह’’ नाम प्रदान किया। शिव जी जटाओं में गंगाजी को धारण करने वाले, सिर पर चंद्रमा को सजाने वाले, मस्तक पर त्रिपुंड तथा तीसरे नेत्र वाले, कंठ में कालपाश (नागराज) तथा रुद्राक्ष-माला से सुशोभित, हाथ में डमरू और त्रिशूल है। भक्तगण बड़ी श्रद्धा से जिन्हें शिवशंकर, शंकर, भोलेनाथ, महादेव, भगवान् आशुतोष, उमापति, गौरीशंकर, सोमेश्वर, महाकाल, ओंकारेश्वर, वैद्यनाथ, नीलकंठ, त्रिपुरारि, सदाशिव तथा अन्य सहस्त्रों नामों से संबोधित कर उनकी पूजा-अर्चना किया करते हैं। ऐसे भगवान् शिव एवं शिवा हम सबके चिंतन को सदा-सदैव सकारात्मक बनायें एवं सबकी मनोकामनाएँ पूरी करें।वनिता कासनियां पंजाब 🙏🙏❤️ ----------:::×:::---------- "ॐ नमः शिवाय""********************************************

. "शिवरात्रि से जुड़ी कथा" #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान           ‘#महाशिवरात्रि’ के विषय में भिन्न-भिन्न मत हैं, कुछ विद्वानों का मत है कि आज के ही दिन शिवजी और माता पार्वती विवाह-सूत्र में बंधे थे जबकि अन्य कुछ विद्वान् ऐसा मानते हैं कि आज के ही दिन शिवजी ने ‘कालकूट’ नाम का विष पिया था जो सागरमंथन के समय समुद्र से निकला था।            ज्ञात है कि यह समुद्रमंथन देवताओं और असुरों ने अमृत-प्राप्ति के लिए किया था। एक शिकारी की कथा भी इस त्यौहार के साथ जुड़ी हुई है कि कैसे उसके अनजाने में की गई पूजा से प्रसन्न होकर भगवान् शिव ने उस पर अपनी असीम कृपा की थी। यह कथा पौराणिक “शिव पुराण” में भी संकलित है।           प्राचीन काल में, किसी जंगल में एक गुरुद्रुह नाम का एक शिकारी रहता था जो जंगली जानवरों का शिकार करता तथा अपने परिवार का भरण-पोषण किया करता था। एक बार शिव-रात्रि के दिन जब वह शिकार के लिए निकला, पर संयोगवश पूरे दिन खोजन...

🐦पाणिग्रहण जब कीन्ह महेशा। हीय हरषे तब सकल सुरेशा।🐦#बाल #वनिता #महिला वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान#शिव पार्वती विवाह ➖पाणिग्रहण संस्कार➖विदाई का वर्णन➖सास ससुर एवम भोले बाबा के बीच वार्ता का वर्णन➖अदभुद प्रसंग रामचरित मानस🐦🐦🐦महाशिवरात्रि की अग्रिम #शुभकामनाएं🐦🐦 बाजही बाजे विविध विधाना सुमनबृष्टि नभ भें विधि नाना🚩 करेहू सदा शंकर पद पूजा। नारिधरम पद देउ ना दूजा।🚩 जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई। महामुनिन्ह सो सब करवाई॥🚩 गहि गिरीस कुस कन्या पानी। भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥🚩तुलसीदास जी मधुर एवम मनोरम चौपाइयों के द्वारा ➖शिव पार्वती विवाह ➖का विस्तृत वर्णन किया है । हमे इस प्रसंग को सुनना एवम पढ़ना चाहिए ।इसके सुनने से मनुष्य की शिव के चरणों की भक्ति प्राप्त होगी।➖जय भोले शंकर➖भावार्थ:-वेदों में विवाह की जैसी रीति कही गई है, महामुनियों ने वह सभी रीति करवाई। पर्वतराज हिमाचल ने हाथ में कुश लेकर तथा कन्या का हाथ पकड़कर उन्हें भवानी (शिवपत्नी) जानकर शिवजी को समर्पण किया॥॥🚩 पानिग्रहन जब कीन्ह महेसा। हियँ हरषे तब सकल सुरेसा॥बेदमन्त्र मुनिबर उच्चरहीं। जय जय जय संकर सुर करहीं॥🚩भावार्थ:-जब महेश्वर (शिवजी) ने पार्वती का पाणिग्रहण किया, तब (इन्द्रादि) सब देवता हृदय में बड़े ही हर्षित हुए। श्रेष्ठ मुनिगण वेदमंत्रों का उच्चारण करने लगे और देवगण शिवजी का जय-जयकार करने लगे॥॥🚩बाजहिं बाजन बिबिध बिधाना। सुमनबृष्टि नभ भै बिधि नाना॥हर गिरिजा कर भयउ बिबाहू। सकल भुवन भरि रहा उछाहू॥॥🚩भावार्थ:-अनेकों प्रकार के बाजे बजने लगे। आकाश से नाना प्रकार के फूलों की वर्षा हुई। शिव-पार्वती का विवाह हो गया। सारे ब्राह्माण्ड में आनंद भर गया॥🚩 दासीं दास तुरग रथ नागा। धेनु बसन मनि बस्तु बिभागा॥अन्न कनकभाजन भरि जाना। दाइज दीन्ह न जाइ बखाना॥॥🚩भावार्थ:-दासी, दास, रथ, घोड़े, हाथी, गायें, वस्त्र और मणि आदि अनेक प्रकार की चीजें, अन्न तथा सोने के बर्तन गाड़ियों में लदवाकर दहेज में दिए, जिनका वर्णन नहीं हो सकता॥॥🚩छन्द : दाइज दियो बहु भाँति पुनि कर जोरि हिमभूधर कह्यो।का देउँ पूरनकाम संकर चरन पंकज गहि रह्यो॥ सिवँ कृपासागर ससुर कर संतोषु सब भाँतिहिं कियो।पुनि गहे पद पाथोज मयनाँ प्रेम परिपूरन हियो॥🚩भावार्थ:-बहुत प्रकार का दहेज देकर, फिर हाथ जोड़कर हिमाचल ने कहा- हे शंकर! आप पूर्णकाम हैं, मैं आपको क्या दे सकता हूँ? (इतना कहकर) वे शिवजी के चरणकमल पकड़कर रह गए। तब कृपा के सागर शिवजी ने अपने ससुर का सभी प्रकार से समाधान किया। फिर प्रेम से परिपूर्ण हृदय मैनाजी ने शिवजी के चरण कमल पकड़े (और कहा-)।🚩दोहा :नाथ उमा मम प्रान सम गृहकिंकरी करेहु।छमेहु सकल अपराध अब होइ प्रसन्न बरु देहु॥॥🚩भावार्थ:-हे नाथ! यह उमा मुझे मेरे प्राणों के समान (प्यारी) है। आप इसे अपने घर की टहलनी बनाइएगा और इसके सब अपराधों को क्षमा करते रहिएगा। अब प्रसन्न होकर मुझे यही वर दीजिए।।🚩चौपाई :बहु बिधि संभु सासु समुझाई। गवनी भवन चरन सिरु नाई॥जननीं उमा बोलि तब लीन्ही। लै उछंग सुंदर सिख दीन्ही॥॥🚩भावार्थ:-शिवजी ने बहुत तरह से अपनी सास को समझाया। तब वे शिवजी के चरणों में सिर नवाकर घर गईं। फिर माता ने पार्वती को बुला लिया और गोद में बिठाकर यह सुंदर सीख दी-॥🚩करेहु सदा संकर पद पूजा। नारिधरमु पति देउ न दूजा॥बचन कहत भरे लोचन बारी। बहुरि लाइ उर लीन्हि कुमारी॥॥🚩भावार्थ:-हे पार्वती! तू सदाशिवजी के चरणों की पूजा करना, नारियों का यही धर्म है। उनके लिए पति ही देवता है और कोई देवता नहीं है। इस प्रकार की बातें कहते-कहते उनकी आँखों में आँसू भर आए और उन्होंने कन्या को छाती से चिपटा लिया॥2॥🚩 कत बिधि सृजीं नारि जग माहीं। पराधीन सपनेहूँ सुखु नाहीं॥भै अति प्रेम बिकल महतारी। धीरजु कीन्ह कुसमय बिचारी॥🚩भावार्थ:-(फिर बोलीं कि) विधाता ने जगत में स्त्री जाति को क्यों पैदा किया? पराधीन को सपने में भी सुख नहीं मिलता। यों कहती हुई माता प्रेम में अत्यन्त विकल हो गईं, परन्तु कुसमय जानकर (दुःख करने का अवसर न जानकर) उन्होंने धीरज धरा॥॥🚩* पुनि पुनि मिलति परति गहि चरना। परम प्रेमु कछु जाइ न बरना॥सब नारिन्ह मिलि भेंटि भवानी। जाइ जननि उर पुनि लपटानी॥॥🚩भावार्थ:-मैना बार-बार मिलती हैं और (पार्वती के) चरणों को पकड़कर गिर पड़ती हैं। बड़ा ही प्रेम है, कुछ वर्णन नहीं किया जाता। भवानी सब स्त्रियों से मिल-भेंटकर फिर अपनी माता के हृदय से जा लिपटीं॥॥🚩छन्द :* जननिहि बहुरि मिलि चली उचित असीस सब काहूँ दईं।फिरि फिरि बिलोकति मातु तन तब सखीं लै सिव पहिं गईं॥ जाचक सकल संतोषि संकरु उमा सहित भवन चले।सब अमर हरषे सुमन बरषि निसान नभ बाजे भले॥🚩भावार्थ:-पार्वतीजी माता से फिर मिलकर चलीं, सब किसी ने उन्हें योग्य आशीर्वाद दिए। पार्वतीजी फिर-फिरकर माता की ओर देखती जाती थीं। तब सखियाँ उन्हें शिवजी के पास ले गईं। महादेवजी सब याचकों को संतुष्ट कर पार्वती के साथ घर (कैलास) को चले। सब देवता प्रसन्न होकर फूलों की वर्षा करने लगे और आकाश में सुंदर नगाड़े बजाने लगे।🚩दोहा :* चले संग हिमवंतु तब पहुँचावन अति हेतु।बिबिध भाँति परितोषु करि बिदा कीन्ह बृषकेतु॥102॥🚩भावार्थ:-तब हिमवान्‌ अत्यन्त प्रेम से शिवजी को पहुँचाने के लिए साथ चले। वृषकेतु (शिवजी) ने बहुत तरह से उन्हें संतोष कराकर विदा किया॥102॥.🚩चौपाई :* तुरत भवन आए गिरिराई। सकल सैल सर लिए बोलाई॥आदर दान बिनय बहुमाना। सब कर बिदा कीन्ह हिमवाना॥1॥🚩भावार्थ:-पर्वतराज हिमाचल तुरंत घर आए और उन्होंने सब पर्वतों और सरोवरों को बुलाया। हिमवान ने आदर, दान, विनय और बहुत सम्मानपूर्वक सबकी विदाई की॥1॥🚩* जबहिं संभु कैलासहिं आए। सुर सब निज निज लोक सिधाए॥जगत मातु पितु संभु भवानी। तेहिं सिंगारु न कहउँ बखानी॥2॥🚩भावार्थ:-जब शिवजी कैलास पर्वत पर पहुँचे, तब सब देवता अपने-अपने लोकों को चले गए। (तुलसीदासजी कहते हैं कि) पार्वतीजी और शिवजी जगत के माता-पिता हैं, इसलिए मैं उनके श्रृंगार का वर्णन नहीं करता॥2॥🚩* करहिं बिबिध बिधि भोग बिलासा। गनन्ह समेत बसहिं कैलासा॥हर गिरिजा बिहार नित नयऊ। एहि बिधि बिपुल काल चलि गयऊ॥3॥🚩भावार्थ:-शिव-पार्वती विविध प्रकार के भोग-विलास करते हुए अपने गणों सहित कैलास पर रहने लगे। वे नित्य नए विहार करते थे। इस प्रकार बहुत समय बीत गया॥3॥🚩* जब जनमेउ षटबदन कुमारा। तारकु असुरु समर जेहिं मारा॥आगम निगम प्रसिद्ध पुराना। षन्मुख जन्मु सकल जग जाना॥4॥🚩भावार्थ:-तब छ: मुखवाले पुत्र (स्वामिकार्तिक) का जन्म हुआ, जिन्होंने (बड़े होने पर) युद्ध में तारकासुर को मारा। वेद, शास्त्र और पुराणों में स्वामिकार्तिक के जन्म की कथा प्रसिद्ध है और सारा जगत उसे जानता है॥4॥🚩छन्द :* जगु जान षन्मुख जन्मु कर्मु प्रतापु पुरुषारथु महा।तेहि हेतु मैं बृषकेतु सुत कर चरित संछेपहिं कहा॥ यह उमा संभु बिबाहु जे नर नारि कहहिं जे गावहीं।कल्यान काज बिबाह मंगल सर्बदा सुखु पावहीं॥🚩भावार्थ:-षडानन (स्वामिकार्तिक) के जन्म, कर्म, प्रताप और महान पुरुषार्थ को सारा जगत जानता है, इसलिए मैंने वृषकेतु (शिवजी) के पुत्र का चरित्र संक्षेप में ही कहा है। शिव-पार्वती के विवाह की इस कथा को जो स्त्री-पुरुष कहेंगे और गाएँगे, वे कल्याण के कार्यों और विवाहादि मंगलों में सदा सुख पाएँगे।🚩दोहा :* चरित सिंधु गिरिजा रमन बेद न पावहिं पारु।बरनै तुलसीदासु किमि अति मतिमंद गवाँरु॥103॥🚩भावार्थ:-गिरिजापति महादेवजी का चरित्र समुद्र के समान (अपार) है, उसका पार वेद भी नहीं पाते। तब अत्यन्त मन्दबुद्धि और गँवार तुलसीदास उसका वर्णन कैसे कर सकता है? ॥103॥🚩चौपाई :* संभु चरित सुनि सरस सुहावा। भरद्वाज मुनि अति सुखु पावा॥बहु लालसा कथा पर बाढ़ी। नयनन्हि नीरु रोमावलि ठाढ़ी॥1॥🚩भावार्थ:-शिवजी के रसीले और सुहावने चरित्र को सुनकर मुनि भरद्वाजजी ने बहुत ही सुख पाया। कथा सुनने की उनकी लालसा बहुत बढ़ गई। नेत्रों में जल भर आया तथा रोमावली खड़ी हो गई॥1॥🚩* प्रेम बिबस मुख आव न बानी। दसा देखि हरषे मुनि ग्यानी॥अहो धन्य तब जन्मु मुनीसा। तुम्हहि प्रान सम प्रिय गौरीसा॥2॥🚩भावार्थ:-वे प्रेम में मुग्ध हो गए, मुख से वाणी नहीं निकलती। उनकी यह दशा देखकर ज्ञानी मुनि याज्ञवल्क्य बहुत प्रसन्न हुए (और बोले-) हे मुनीश! अहा हा! तुम्हारा जन्म धन्य है, तुमको गौरीपति शिवजी प्राणों के समान प्रिय हैं॥2॥🚩* सिव पद कमल जिन्हहि रति नाहीं। रामहि ते सपनेहुँ न सोहाहीं॥बिनु छल बिस्वनाथ पद नेहू। राम भगत कर लच्छन एहू॥॥🚩भावार्थ:-शिवजी के चरण कमलों में जिनकी प्रीति नहीं है, वे श्री रामचन्द्रजी को स्वप्न में भी अच्छे नहीं लगते। विश्वनाथ श्री शिवजी के चरणों में निष्कपट (विशुद्ध) प्रेम होना यही रामभक्त का लक्षण है॥3॥🚩* सिव सम को रघुपति ब्रतधारी। बिनु अघ तजी सती असि नारी॥पनु करि रघुपति भगति देखाई। को सिव सम रामहि प्रिय भाई॥4॥🚩भावार्थ:-शिवजी के समान रघुनाथजी (की भक्ति) का व्रत धारण करने वाला कौन है? जिन्होंने बिना ही पाप के सती जैसी स्त्री को त्याग दिया और प्रतिज्ञा करके श्री रघुनाथजी की भक्ति को दिखा दिया। हे भाई! श्री रामचन्द्रजी को शिवजी के समान और कौन प्यारा है?॥4॥🚩दोहा :* प्रथमहिं मैं कहि सिव चरित बूझा मरमु तुम्हार।सुचि सेवक तुम्ह राम के रहित समस्त बिकार॥🚩भावार्थ:-मैंने पहले ही शिवजी का चरित्र कहकर तुम्हारा भेद समझ लिया। तुम श्री रामचन्द्रजी के पवित्र सेवक हो और समस्त दोषों से रहित हो॥104॥🚩चौपाई :*मैं जाना तुम्हार गुन सीला। कहउँ सुनहु अब रघुपति लीला॥सुनु मुनि आजु समागम तोरें। कहि न जाइ जस सुखु मन मोरें॥॥🚩भावार्थ:-मैंने तुम्हारा गुण और शील जान लिया। अब मैं श्री रघुनाथजी की लीला कहता हूँ, सुनो। हे मुनि! सुनो, आज तुम्हारे मिलने से मेरे मन में जो आनंद हुआ है, वह कहा नहीं जा सकता॥1॥🚩*राम चरित अति अमित मुनीसा। कहि न सकहिं सत कोटि अहीसा॥तदपि जथाश्रुत कहउँ बखानी। सुमिरि गिरापति प्रभु धनुपानी॥॥🚩भावार्थ:-हे मुनीश्वर! रामचरित्र अत्यन्त अपार है। सौ करोड़ शेषजी भी उसे नहीं कह सकते। तथापि जैसा मैंने सुना है, वैसा वाणी के स्वामी (प्रेरक) और हाथ में धनुष लिए हुए प्रभु श्री रामचन्द्रजी का स्मरण करके कहता हूँ॥2॥🚩*सारद दारुनारि सम स्वामी। रामु सूत्रधर अंतरजामी॥जेहि पर कृपा करहिं जनु जानी। कबि उर अजिर नचावहिं बानी॥॥🚩भावार्थ:-सरस्वतीजी कठपुतली के समान हैं और अन्तर्यामी स्वामी श्री रामचन्द्रजी (सूत पकड़कर कठपुतली को नचाने वाले) सूत्रधार हैं। अपना भक्त जानकर जिस कवि पर वे कृपा करते हैं, उसके हृदय रूपी आँगन में सरस्वती को वे नचाया करते हैं॥🚩* प्रनवउँ सोइ कृपाल रघुनाथा। बरनउँ बिसद तासु गुन गाथा॥परम रम्य गिरिबरु कैलासू। सदा जहाँ सिव उमा निवासू॥॥🚩भावार्थ:-उन्हीं कृपालु श्री रघुनाथजी को मैं प्रणाम करता हूँ और उन्हीं के निर्मल गुणों की कथा कहता हूँ। कैलास पर्वतों में श्रेष्ठ और बहुत ही रमणीय है, जहाँ शिव-पार्वतीजी सदा निवास करते हैं॥॥🚩दोहा :सिद्ध तपोधन जोगिजन सुर किंनर मुनिबृंद।बसहिं तहाँ सुकृती सकल सेवहिं सिव सुखकंद॥॥🚩भावार्थ:-सिद्ध, तपस्वी, योगीगण, देवता, किन्नर और मुनियों के समूह उस पर्वत पर रहते हैं। वे सब बड़े पुण्यात्मा हैं और आनंदकन्द श्री महादेवजी की सेवा करते हैं॥॥🚩चौपाई :* हरि हर बिमुख धर्म रति नाहीं। ते नर तहँ सपनेहुँ नहिं जाहीं॥तेहि गिरि पर बट बिटप बिसाला। नित नूतन सुंदर सब काला॥1॥🚩भावार्थ:-जो भगवान विष्णु और महादेवजी से विमुख हैं और जिनकी धर्म में प्रीति नहीं है, वे लोग स्वप्न में भी वहाँ नहीं जा सकते। उस पर्वत पर एक विशाल बरगद का पेड़ है, जो नित्य नवीन और सब काल (छहों ऋतुओं) में सुंदर रहता है॥1॥🚩* त्रिबिध समीर सुसीतलि छाया। सिव बिश्राम बिटप श्रुति गाया॥एक बार तेहि तर प्रभु गयऊ। तरु बिलोकि उर अति सुखु भयऊ॥2॥🚩भावार्थ:-वहाँ तीनों प्रकार की (शीतल, मंद और सुगंध) वायु बहती रहती है और उसकी छाया बड़ी ठंडी रहती है। वह शिवजी के विश्राम करने का वृक्ष है, जिसे वेदों ने गाया है। एक बार प्रभु श्री शिवजी उस वृक्ष के नीचे गए और उसे देखकर उनके हृदय में बहुत आनंद हुआ॥2॥🚩*निज कर डासि नागरिपु छाला। बैठे सहजहिं संभु कृपाला॥कुंद इंदु दर गौर सरीरा। भुज प्रलंब परिधन मुनिचीरा॥3॥🚩भावार्थ:-अपने हाथ से बाघम्बर बिछाकर कृपालु शिवजी स्वभाव से ही (बिना किसी खास प्रयोजन के) वहाँ बैठ गए। कुंद के पुष्प, चन्द्रमा और शंख के समान उनका गौर शरीर था। बड़ी लंबी भुजाएँ थीं और वे मुनियों के से (वल्कल) वस्त्र धारण किए हुए थे॥3॥🚩* तरुन अरुन अंबुज सम चरना। नख दुति भगत हृदय तम हरना॥भुजग भूति भूषन त्रिपुरारी। आननु सरद चंद छबि हारी॥॥🚩भावार्थ:-उनके चरण नए (पूर्ण रूप से खिले हुए) लाल कमल के समान थे, नखों की ज्योति भक्तों के हृदय का अंधकार हरने वाली थी। साँप और भस्म ही उनके भूषण थे और उन त्रिपुरासुर के शत्रु शिवजी का मुख शरद (पूर्णिमा) के चन्द्रमा की शोभा को भी हरने वाला (फीकी करने वाला) था॥॥🚩#Vnita🙏 🙏❤️🐦हर हर महादेव➖सत्यम शिवम सुन्दरम🐦

🐦पाणिग्रहण जब कीन्ह महेशा।           हीय हरषे तब सकल सुरेशा।🐦 #बाल #वनिता #महिला वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान #शिव पार्वती विवाह ➖पाणिग्रहण संस्कार➖विदाई का वर्णन➖सास ससुर एवम भोले बाबा के बीच वार्ता का वर्णन➖अदभुद प्रसंग रामचरित मानस🐦 🐦🐦महाशिवरात्रि की अग्रिम #शुभकामनाएं🐦🐦  बाजही बाजे विविध विधाना       सुमनबृष्टि नभ भें विधि नाना🚩      करेहू सदा शंकर पद पूजा।           नारिधरम पद देउ ना दूजा।🚩      जसि बिबाह कै बिधि श्रुति गाई।            महामुनिन्ह सो सब करवाई॥🚩         गहि गिरीस कुस कन्या पानी।       भवहि समरपीं जानि भवानी॥1॥🚩 तुलसीदास जी मधुर एवम मनोरम चौपाइयों के द्वारा ➖शिव पार्वती विवाह ➖का विस्तृत वर्णन किया है । हमे इस प्रसंग को सुनना एवम पढ़ना चाहिए ।इसके सुनने से मनुष्य की शिव के चरणों की भक्ति प्राप्त होगी।➖जय भोले शंकर➖ भावार्थ:-वेदों में विवाह की जै...

,प्रात: काल जल्दी उठ हाथ-पांव धोकर पलंग के पास बैठ जाइये, विचार करें कि मैं भगवान् का एक पार्षद हूँ, एक भक्त हूँ, ऐसा सोचकर परमात्मा का चिन्तन करें, परमात्मा के गुणों का नित्य चिन्तन करे, चिन्तन कैसे करें? परमात्मा के चरणों में ब्रज अंकुश ध्वजा का चिह्न है, ये परमात्मा के चरण हैं, चरणों के चिन्तन की बात शास्त्रों में क्यों कहीं? क्योंकि हमारा जो चित है ना सज्जनों, इसे चित क्यों कहते है? ।#वनिता #कासनियां #पंजाब ❤️🙏🙏❤️क्योंकि जन्म-जन्माँतरों की वासना की गठरी हमारे चित में चिपकी हुई है, कर्मों की गठरी चित में चिपकी हुई है, जब श्रीकृष्ण के चरणों का चिन्तन करेंगे तो कृष्ण पहले अपने चरणों को हमारे चित में स्थापित करेंगे, उनके चरणों की ध्वजा, अंकुश, ब्रज आदि के द्वारा हमारे पाप की गठरी कट-कटकर हट जायेगी और हमारा चित निर्मल हो जायेगा, जब परमात्मा को हम ह्रदय रूपी घर में बिठाना चाहते हैं और उसमें काम, क्रोध, मत्स्य, वासना जैसी गंदगी भरी होगी तो क्या परमात्मा कभी आयेंगे? बिल्कुल नहीं आयेंगे, इसलिये पहले उनके चरणों का चिन्तन करें और चिन्तन के माध्यम से ह्रदय को शुद्ध करें, तब उस ह्रदय में मेरे गोविन्द का प्राकट्य हो सकता है, पहले चरणों का चिन्तन करें, घुटनों का चिन्तन करें, भगवान् के कटि प्रदेश का चिन्तन करें, प्रभु के उदर का चिन्तन करें, नाभि का चिन्तन करें, कण्ठ का चिन्तन करें और धीरे-धीरे मेरे गोविन्द के मुखार विन्द का चिन्तन करें।हासं हरेरवनताखिललोकतीव्र शोकाश्रुसागर विशोषणमत्युदारम्।सम्मोहनाय रचितं निजमाययास्य भ्रूमण्डलं मुनिकृते मकरध्वजस्य।।हंसी से परिपूर्ण प्रभु के मुखार विन्द का चिन्तन करें, क्योंकि शोकरूपी सागर में डूबा हुआ जो मनुष्य है, उसे शोक सागर से निकालकर आनन्द के महासागर में पहुंचाने की ताकत केवल परमात्मा की हंसी में हैं, हंसते हुए भगवान् के चिन्तन की बात क्यों कहीं? दोस्तो! श्रीकृष्ण के चरित्र में जितने संकट आये, जितने भी परमात्मा के चरित्र है, उनमें श्रीकृष्ण के चरित्र में जितना संकट आया, उतना संकट किसी भगवान् के जीवन में कभी नहीं आया।आप भगवान् श्रीकृष्ण के चरित्र पर एक नजर डालकर देखे- इनका जन्म कहां हुआ? जहाँ डाकुओं को बंद किया जाता है, जेलखाने में तो कन्हैया पैदा हुये जेलखाने में, जन्म लेते ही गोकुल भागना पड़ा, वहाँ केवल सात दिन के थे तो पूतना मारने आ गयी, छ: महीने के थे तब शंकटासुर राक्षस मारने आ गया, एक वर्ष के थे तो तृणावर्त मारने आया, यमुना में कूद कर कालियादमन किया, उसके बाद गिरिराज को उठाया, अघासुर, बकासुर, व्योमासुर, धेनुकासुर, केशी आदि कई राक्षसों को मारा।ग्यारह वर्ष छप्पन दिन के कृष्ण ने सैंकड़ों राक्षसों से युद्ध किया, कंस का मर्दनकर उद्धार किया, मथुरा में भी शांति नहीं मिली, जरासंध ने मथुरा को घेर लिया तो द्वारिका नामक नगरी बसा कर द्वारिका चले गये, द्वारिका में शान्ति से बैठे थे कि पांडव बोले हम संकट में हैं हमारी रक्षा करो, कौरव-पांडवों में छिड़े युद्ध में कन्हैया ने पांडवों को विजय श्री प्रदान कराई, अब थोड़ा शान्ति से बैठे थे, चलो सुख से जीवन व्यतीत होगा तो घर में ही झगड़ा शुरू हो गया।यदुवंशी एक-दूसरे पर वार करने लगे, घर में भी शान्ति नहीं मिली, कृष्ण की आँखों के सामने निन्यानवे लाख से भी ज्यादा संख्या वाले यदुवंशी ऐसे लड-लडकर, कट-कटकर मर गये, एक भी दिन श्री कृष्ण का सुख और शांति से व्यतीत नहीं हुआ, संकट पर आए संकटों का निवारण करने में ही सम्पूर्ण जीवन बीत गया, इतने संकट आने पर भी कभी आपने श्रीकृष्ण को अपने सिर पर हाथ धर कर कभी चिन्ता करते नहीं सुना।भगवान् कभी चिन्ता में डूबे हो ऐसा शास्त्रों में कहीं पर नहीं लिखा, मुस्कुराते ही रहते थे हमेशा, इसका मतलब क्या है? श्री गोविन्द कहना चाहते है कि हमेशा मुस्कुराते रहे, सदैव प्रसन्न रहना ही मेरी सर्वोपरि भक्ति है, आपने सुना होगा उल्लू को दिन में दिखायी नहीं देता और जो कौआ होता है, उसे रात में दिखायी नहीं देता, उल्लू चाहता है कि हमेशा रात बनी रहे तो अच्छा, कौआ चाहता है कि दिन बना रहे तो अच्छा है, लेकिन उल्लू और कौए के चाहने से दिन-रात कभी बदलेगा? ये कभी हो सकता है क्या? रात्रि के बाद दिन और दिन के बाद रात्रि तो आती ही रहेगी, ये क्रम है संसार का, दु:ख और सुख आते-जाते ही रहेंगे, अत: दोनो परिस्थतियों में एक से रहो, जैसी परिस्थितियां जीवन में आयें उनका डटकर मुकाबला करो, उनसे घबराओ नहीं, जो परिस्थितियों से घबरा जाता है, वो मानव जीवन में कभी प्रगति नहीं कर सकता, निराश न होइये सफलता अवश्य मिलेगी।हर जलते दीप के तले अंधेरा होता है।हर अंधेरी रात के पीछे सवेरा होता है।।लोग घबरा जाते हैं मुसीबतों को देखकर।हर मुसीबतों के बाद खुशी का तराना आता है।।सज्जनों, दु:ख से घबराना नहीं है अपने आप दु:ख शान्त हो जायेगा, केवल सामना किजिये, शास्त्र कहते हैं- रोज चिन्तन करो, मुस्कुराते हुए प्रभु के चेहरे का चिन्तन करो, जो ऐसा मानसिक पूजन नियमित करते है, धीरे-धीरे उसका मन एकाग्र हो जाता है, जिसमें हम नजर डालेंगे उसमें हमको परमात्मा दिखेगा, इसलिये मुस्कराते हुयें जीवन को भगवान् की अनुकम्पा के साथ जियें, इसी अध्यात्म संदेश के साथ आज कामदा ऐकादशी की पावन सुप्रभात् आप सभी को मंगलमय् हो।जय श्रीकृष्ण!ओऊम् नमो भगवते वासुदेवाय्

,प्रात: काल जल्दी उठ हाथ-पांव धोकर पलंग के पास बैठ जाइये, विचार करें कि मैं भगवान् का एक पार्षद हूँ, एक भक्त हूँ, ऐसा सोचकर परमात्मा का चिन्तन करें, परमात्मा के गुणों का नित्य चिन्तन करे, चिन्तन कैसे करें? परमात्मा के चरणों में ब्रज अंकुश ध्वजा का चिह्न है, ये परमात्मा के चरण हैं, चरणों के चिन्तन की बात शास्त्रों में क्यों कहीं? क्योंकि हमारा जो चित है ना सज्जनों, इसे चित क्यों कहते है? । #वनिता #कासनियां #पंजाब           ❤️🙏🙏❤️ क्योंकि जन्म-जन्माँतरों की वासना की गठरी हमारे चित में चिपकी हुई है, कर्मों की गठरी चित में चिपकी हुई है, जब श्रीकृष्ण के चरणों का चिन्तन करेंगे तो कृष्ण पहले अपने चरणों को हमारे चित में स्थापित करेंगे, उनके चरणों की ध्वजा, अंकुश, ब्रज आदि के द्वारा हमारे पाप की गठरी कट-कटकर हट जायेगी और हमारा चित निर्मल हो जायेगा, जब परमात्मा को हम ह्रदय रूपी घर में बिठाना चाहते हैं और उसमें काम, क्रोध, मत्स्य, वासना जैसी गंदगी भरी होगी तो क्या परमात्मा कभी आयेंगे?  बिल्कुल नहीं आयेंगे, इसलिये पहले उनके चरणों का चिन्तन करें और चिन्तन के माध्यम से...

हम नाम के लिये तरसते है लेकिन हनुमानजी अपने नाम को छुपाते है क्यों?#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान ❤️❤️❤️❤️❤️🙏🙏❤️❤️❤️❤️❤️❤️*प्रनवउँ #पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन।जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥ सज्जनों! हम नाम के लिये तरसते है लेकिन हनुमानजी अपने नाम को छुपाते है। हनुमानजी ने अपने नाम को छुपा लिया हम अपना प्रकट करने के लिये लालायित है, सज्जनों! कई लोग तो पत्थर पर खुदवा के जायेंगे, भले ही हम दुनिया से चले जायें लेकिन हमारा नाम रहना चाहियें, काम दिखाई दे न दे उसकी चिंता नहीं है, लेकिन नाम दिखाई देना चाहियें इसकी चिंता है, हनुमानजी का जगत में काम दिखाई देता है लेकिन हनुमानजी का कोई नाम नहीं पता लगा पाया।एक तो हनुमानजी ने अपना नाम छिपाया और दूसरा रूप, भाईयों! आपको तो मालूम है कि कुरूप कोई होता है तो बन्दर होता है, और इसके पीछे भी कारण होगा, हनुमानजी चाहते हैं कि लोग मुझे देख कर मुंह फेर ले, मैरे प्रभु का सब लोग दर्शन कर ले, मैरे प्रभु सुन्दर लगें, मै तो बन्दर ही ठीक हूँ।हम सब अपने नाम, रूप व यश के लिए रोते हैं, आप किसी भी #परिवार में जाइये, कोई न कोई यह शिकायत करते मिलेगा कि हम कितना भी कर दे, कितनी भी मेहनत करें, कितना भी काम कर दे, सबके लिए कितना भी कर दे, लेकिन हमें हमेशा अपयश ही मिलता है, हमको केवल बुराई ही बुराई मिलती है,सारा रोना यश का है।हनुमानजी हर घर में भगवान रामजी का यश चाहते हैं, जब लंका में हनुमानजी जानकीजी के पास बैठे थे और जानकी माँ स्वयं रो रही थीं तब हनुमानजी ने कहा माँ वैसे तो मैं आपको अभी ले जा सकता था, परन्तु मैं चाहता हूँ कि सारा जगत्, तीनों लोक मैरे प्रभु का यशगान करें, और बन्धुओं! जो यश का त्याग कर देता है, उनका यश हमेशा भगवान गाते हैं।अबहि मातु मैं जाऊँ लैवाई, #प्रभु आयसु नहिं राम दुहाई।कछुक दिवस जननी धरू धीरा, कपिन्ह सहित अइहहिं रघुबीरा।।निसिचर मारि तोहि ले जैहहिं, तिहुँ पुर नारदादि जस गैहहिं।।भगवान् श्री भरतजी से कहते हैं कि रघुवंश की इकहत्तर पीढियाँ भी हनुमान की सेवा में लग जायेंगी, तो भी हे भरत! रघुवंशी हनुमान के इस ऋण से उऋण नहीं होंगे, भगवान कहते हैं कि हनुमान अगर तूने अपना यश त्याग दिया तो मेरा आशीर्वाद है तेरा यश केवल मैं ही नहीं अपितु, "सहस बदन तुम्हरो जस गांवैं" हजारों मुखों से शेषनाग भी जिनका यश का गुणगान करते हैं।महावीर विनवउँ हनुमाना, राम जासु जस आपु बखाना।गिरिजा जासु प्रीति सेवकाई, बार बार प्रभु निज मुख गाई।।श्री #हनुमानजी को देखो यश से कितनी दूर है, मनुष्य जरा सा भी काम करता है, उसको भी छपवाना चाहता है, हनुमानजी कितना बडा काम करके आयें तो भी छुपाते रहे, सज्जनों! आपने वो घटना सुनी होगी कि वानरों के बीच में भगवान् बैठे हैं तो भगवान् चाहते हैं कि हनुमानजी के गुण वानरों के सामने आयें, भगवान् बोले हनुमान 400 कोस का सागर कोई वानर पार नहीं कर पाया मैंने सुना तुम बडे आराम से पार करके चले गयें? हनुमानजी ने कहा महाराज बन्दर की क्या क्षमता थी, "शाखा से शाखा पर जाई" बन्दर तो इस टहनी से उस टहनी पर उछल कूद करता है यह तो प्रभु आपकी कृपा से हुआ, "प्रभु मुद्रिका मेलि मुख माहीं, जलधि लागिं गये अचरज नाही" हनुमानजी बोले भगवान् से "तोय मुद्रिका उस पार किये" यह आपकी मुद्रिका थी जिस के कारण मैं सागर पार कर गया।भगवान् ने कहा अच्छा मैरी मुद्रिका से सागर पार किया परन्तु मुद्रिका तो आप जानकीजी को दे आये थे, लेकिन जब लोट कर आये तो सागर सिकुड गया था या छोटा हो गया था? हनुमानजी बोले सागर तो उतना ही रहा, भगवान ने पूछा जब तुम मेरी मुद्रिका से सागर पार गये और लोटते समय मुद्रिका तुम्हारे पास थी नही तो तुम इस पार कैसे आयें#Vnita🙏🙏❤️हनुमानजी ने बहुत सुन्दर उत्तर दिया कि "तोय मुदरि उस पार किये और चूडामणि इस पार" आपकी कृपा ने तो माँ के चरणों तक पहुंचा दिया और माँ के #आशीर्वाद ने आपके चरणों तक पहुंचा दिया, #भाई-बहनों! ऐसे है हमारे हनुमानजी महाराज, न नाम चाहिये न यश चाहियें।

हम नाम के लिये तरसते है लेकिन हनुमानजी अपने नाम को छुपाते है क्यों? #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान        ❤️❤️❤️❤️❤️🙏🙏❤️❤️❤️❤️❤️❤️ *प्रनवउँ #पवनकुमार खल बन पावक ग्यान घन। जासु हृदय आगार बसहिं राम सर चाप धर॥ मैं पवनकुमार श्री हनुमान्‌जी को प्रणाम करता हूँ, जो दुष्ट रूपी वन को भस्म करने के लिए अग्निरूप हैं, जो ज्ञान की घनमूर्ति हैं और जिनके हृदय रूपी भवन में धनुष-बाण धारण किए श्री रामजी निवास करते हैं॥   सज्जनों! हम नाम के लिये तरसते है लेकिन हनुमानजी अपने नाम को छुपाते है। हनुमानजी ने अपने नाम को छुपा लिया हम अपना प्रकट करने के लिये लालायित है, सज्जनों! कई लोग तो पत्थर पर खुदवा के जायेंगे, भले ही हम दुनिया से चले जायें लेकिन हमारा नाम रहना चाहियें, काम दिखाई दे न दे उसकी चिंता नहीं है, लेकिन नाम दिखाई देना चाहियें इसकी चिंता है, हनुमानजी का जगत में काम दिखाई देता है लेकिन हनुमानजी का कोई नाम नहीं पता लगा पाया। एक तो हनुमानजी ने अपना नाम छिपाया और दूसरा रूप, भाईयों! आपको तो मालूम है कि कुरूप ...

ब्रह्मचर्य है जिनकी पहचान,ऐसे महावीर हनुमान का हम गुणगान करते हैं!!!!!!!!#बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थानजब भगवान अवतार धारण करते हैं, तब वे अकेले ही प्रकट नहीं होते हैं; उनके साथ अनेक देवतागण भी अपने अंशरूप में अवतरित होते हैं । जब पृथ्वी पर रावण (जिसका अर्थ है संसार को रुलाने वाला) का आतंक छा गया, सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी, तब भगवान श्रीराम ने सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिए अवतार धारण किया । उस समय अनेक देवतागण वानरों और भालुओं के रूप में प्रकट हुए थे । कैलासपति भगवान शंकर ने समाधिवस्था में श्रीराम के अवतार धारण करने का संकल्प जान लिया । भगवान रुद्र (शंकर) भी अपने आराध्य की सेवा करने तथा कठिन कलिकाल में भक्तों की रक्षा करने की इच्छा से श्रीराम के प्रमुख सेवक के रूप में अवतरित हुए । जेहि शरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान ।रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ।। (दोहावली १४२)भगवान शंकर ने यह अवतार बिना शक्ति (पार्वती) के अकेले ही धारण किया, इसलिए नैष्ठिक ब्रह्मचर्य इस अवतार का मुख्य लक्षण है । ब्रह्मचर्य व्रत का पालन करके हनुमानजी ने मानव समाज के सामने आचरण सम्बन्धी महान आदर्श प्रस्तुत किया है । हनुमानजी ने जिस समाज में जन्म लिया, उसमें बहुपत्नी-प्रथा थी। हनुमानजी का जन्मसिद्ध ब्रह्मचर्य का गुण किसी न्यूनता या अयोग्यता के कारण नहीं था । वे चाहते तो भोगविलासमय जीवन व्यतीत कर सकते थे लेकिन वे जन्म से ही इस प्रकार के जीवन से दूर रहे ।मतवाले हाथी या खूंखार शेरों पर विजय पाने वाला मनुष्य ‘वीर’ कहलाता है किन्तु मन को जीतकर काम पर विजय पाने वाला मनुष्य ‘महावीर’ होता है । आजन्म ब्रह्मचर्य-व्रत के कारण ही हनुमानजी महावीर कहलाते हैं ।प्रभु श्रीराम के प्रमुख व अंतरंग सेवक जैसे अधिकार के पद को संभालते हुए ब्रह्मचर्य का पालन करना खेल नहीं है, यह बहुत बड़ी तपस्या है । हनुमानजी इस तप में कितने खरे उतरे, यह उनके जीवन की एक घटना से स्पष्ट है—माता सीता की खोज में हनुमानजी ने रात्रि में लंका में प्रवेश किया । उन्हें पता तो था नहीं कि रावण ने जनकनन्दिनी को कहां रखा है, अत: वे राक्षसों के घर में घूमते फिरे । वे राक्षसों के अंत:पुर थे, संयमियों के नहीं । सुरापान और उन्मत्त विलास ही राक्षसों के प्रिय व्यसन थे । अपनी उन्मत्त-क्रीडा के बाद राक्षसगण निद्रामग्न हो चुके थे और प्रत्येक घर में अस्त-व्यस्त वस्त्रों में निद्रालीन राक्षस युवतियां हनुमानजी को देखने को मिलीं । हनुमानजी ने कभी सीताजी को देखा तो था नहीं, अत: जिस सुन्दरी स्त्री को देखते तो सोचते, हो-न-हो यही सीता माता हैं, फिर जब उससे बढ़ कर किसी सुन्दर स्त्री को देखते तो उसे सीताजी समझने लगते । कभी उनको लगता—इनमें से यदि कोई भी सीता नहीं तो सीताजी गईं कहां ? सम्पाती की बात झूठ तो हो नहीं सकती । उसने कहा था—‘मैं सीताजी को लंका में बैठे देख रहा हूँ ।’ जानकीजी को ढूंढ़ना है तो स्त्रियां जहां रह सकती हैं, वहीं तो ढूंढ़ना पड़ेगा—यही सोचकर वे फिर सीताजी को खोजने लगते । अब वे रावण के अंत:पुर में पहुंच गए । वहां एक स्वर्णनिर्मित पलंग पर रावण सो रहा था और उसके समीप गलीचों पर सहस्त्रों स्त्रियां सो रही थीं । किसी का सोते समय मुख खुला था, कोई खर्राटे भर रही थी, किसी के मुख से पान की पीक बह रही थी । अस्त-व्यस्त पड़ी ऐसी अवस्था वाली परस्त्री को देखना सद्गृहस्थों के लिए भी बहुत बड़ा दोष है, हनुमानजी तो आजन्म ब्रह्मचारी थे । उनके मन में बड़ी घृणा हुई ।वे सोचने लगे—‘आज मेरा व्रत खण्डित हो गया । ब्रह्मचारी को तो स्त्रियों के चित्र को भी नहीं देखना चाहिए । मैंने अर्धनग्न अवस्था में अचेत पड़ीं इन स्त्रियों को देखा है । इससे मुझे दोष लगा, बड़ा अपराध हुआ है । इसका क्या प्रायश्चित करुँ ? मन में बड़ा पश्चात्ताप, ग्लानि और अत्यन्त दु:ख हो रहा है ।’ जिसने कोई व्रत, कोई नियम दीर्घकाल तक पालन किया हो, उससे अनजाने में वह नियम टूट जाए, तो व्रत-भंग की वेदना क्या होती है इसका अनुमान लगाना आम मनुष्य के लिए सम्भव नहीं है ।‘मैं मरणान्त प्रायश्चित करुंगा’—हनुमानजी ने मन में संकल्प किया ।कोई अनर्थ हो, वे कुछ कर बैठें, इससे पहले ही जैसे हृदय में आराध्य के हस्तकमल का प्रकाश हुआ । रघुवंशशिरोमणि श्रीराम अपने भक्तों, आश्रितों की सदा रक्षा करते हैं । हनुमानजी की अंतरात्मा की आवाज आई—‘माता सीता स्त्रियों में ही मिलेंगी, इसी भावना से मैंने रावण के अंत:पुर में प्रवेश किया था । मैं तो माता जानकी को ढूंढ़ रहा था, किसी नारी के सौन्दर्य पर तो मेरी दृष्टि नहीं गई और ना ही मेरे मन में कोई विकार आया । ये जो स्त्रियों के अर्धनग्न देह मुझे देखने पड़े, ये तो मेरी दृष्टि में शव के समान ही थे, फिर मेरा अखण्ड ब्रह्मचर्य का व्रत कैसे भंग हो सकता है ?’‘व्रत का मूल मन है, देह नहीं । अपना अंत:करण ही पुरुष का साक्षी होता है । पाप और पुण्य में भावना ही प्रधान होती है । जब मेरी भावना ही दूषित नहीं हुई, तब प्रायश्चित ही किस बात का ? मैं जिस काम के लिए यहां आया था वह तो पूरा हुआ ही नहीं, मुझे सब काम छोड़कर सीताजी को खोजना चाहिए ।’ यह सोचकर ब्रह्मचर्य का मूर्तिमान रूप हनुमानजी दूसरी जगह सीताजी को खोजने लगे ।‘जहां काम तहँ राम नहिं, जहां राम नहिं काम’ अर्थात् जिसके मन में काम भावना होती है वह श्रीराम की उपासना नहीं कर सकता और जो श्रीराम को भजता है, वहां काम ठहर नहीं सकता । हनुमानजी के तो रोम-रोम में राम बसे हैं और वे सारे संसार को ‘सीयराममय’ देखते थे, इसीलिए हनुमानजी को आजन्म ब्रह्मचर्य का पालन करना असम्भव नहीं था । हनुमानजी के अखण्ड ब्रह्मचर्यव्रत में कोई त्रुटि नहीं आई। उनके मन में जो पश्चात्ताप जगा था, वह ब्रह्मचर्य-व्रत के प्रति उनकी प्रबल निष्ठा और जागरुकता का सूचक है । इसीलिए वे ‘जितेन्द्रिय’ कहलाते हैं और प्रभु श्रीराम के अंतरंग पार्षद होकर उनकी अष्टयाम-सेवा का सौभाग्य भी उन्हें ही प्राप्त हुआ है और माता सीता के अजर-अमर रहने के आशीर्वाद से ही सप्त चिरंजीवियों में उनका नाम है ।संसार में ब्रह्मचर्य एक ऐसी तपस्या है, जिसको सिद्ध कर लेने पर मनुष्य में अनेक दिव्य और दुर्लभ गुण आ जाते हैं और जिसके बल पर मनुष्य महान-से-महान कार्य कर सकता है । सच्चे ब्रह्मचारी के लिए कोई भी बात असम्भव नहीं होती है । हनुमानजी ब्रह्मचारियों में अग्रग्रण्य हैं । हनुमानजी का आजन्म नैष्ठिक ब्रह्मचर्य-पालन का आदर्श अद्वितीय है इसीलिए वे ‘सकलगुणनिधान’ हैं ।अंजनीगर्भसम्भूतो वायुपुत्रो महाबल:।कुमारो ब्रह्मचारी च हनुमन्ताय नमो नम:।आज देश में नवयुवकों में जो चारित्रिक पतन देखने को मिल रहा है उसका उत्तर स्वामी विवेकानन्द के शब्दों में है—‘देश के उद्धार के लिए श्रीराम और हनुमानजी की उपासना जोरों से प्रचलित की जानी चाहिए ।’ क्योंकि हनुमानजी की उपासना से भक्तों में भी उनके गुण प्रकट होने लगते हैं ।

ब्रह्मचर्य है जिनकी पहचान,ऐसे महावीर हनुमान का हम गुणगान करते हैं!!!!!!!! #बाल #वनिता #महिला #वृद्ध #आश्रम की #अध्यक्ष #श्रीमती #वनिता_कासनियां #पंजाब #संगरिया #राजस्थान जब भगवान अवतार धारण करते हैं, तब वे अकेले ही प्रकट नहीं होते हैं; उनके साथ अनेक देवतागण भी अपने अंशरूप में अवतरित होते हैं । जब पृथ्वी पर रावण (जिसका अर्थ है संसार को रुलाने वाला) का आतंक छा गया, सर्वत्र त्राहि-त्राहि मच गयी, तब भगवान श्रीराम ने सज्जनों की रक्षा और दुष्टों के संहार के लिए अवतार धारण किया । उस समय अनेक देवतागण वानरों और भालुओं के रूप में प्रकट हुए थे ।  कैलासपति भगवान शंकर ने समाधिवस्था में श्रीराम के अवतार धारण करने का संकल्प जान लिया । भगवान रुद्र (शंकर) भी अपने आराध्य की सेवा करने तथा कठिन कलिकाल में भक्तों की रक्षा करने की इच्छा से श्रीराम के प्रमुख सेवक के रूप में अवतरित हुए ।  जेहि शरीर रति राम सों सोइ आदरहिं सुजान । रुद्रदेह तजि नेहबस बानर भे हनुमान ।। (दोहावली १४२) भगवान शंकर ने यह अवतार बिना शक्ति (पार्वती) के अकेले ही धारण किया, इसलिए नैष्ठिक ब्रह्मचर्य इस अवतार का मुख्य लक्षण है । ब्...

* बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट रजिस्टर्ड भारत सरकार द्वारा रजिस्ट्रेशन नंबर 202103419400050 का कार्यक्षेत्र संपूर्ण भारत आराजनैतिक संगठन है* (आए जुडे देश के हित के लिए) बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट रजिस्टर्ड संगठन से जुडने हेतु व्हाट्सएप करे। मोबाइल न० 9877264170 बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट रजिस्टर्ड का नीतिगत परिचयमहिला/पुरुष जुड़े ----का सदस्यता अभियान भारतवर्ष के सभी प्रदेशो,संभाग, जिलो,विधानसभा क्षेत्र, तहसील, स्तर पर जोर शोर से चलाया जा रहा है समाज के हितों के लिए आज ही हमसे जुड़े एक फोटो व आधार कार्ड की फ़ोटो हमे वाट्सप नम्बर पर सेन्ड कर दे।उपरोक्त जानकारी हम इसलिए माँग रहे हैं क्योंकि आपको मनोनयन पत्र देते समय आपकी details उसमे भरी जाती है ।हमारे मुख्य उद्देश्य👇👇👇👇👇👇👇👇👇🙏🏻 भारत सरकार द्वारा बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट रजिस्टर्ड संगठन है 🙏 बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट कानून केंद्र सरकार द्वारा संपूर्ण भारत में लागू करवाना1: देश में बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट सुरक्षा कानून लागू किया जाए2: देश के बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट को आयुष्मान कार्ड दिया जाए3: देशभर में बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट का टोल टैक्स फ्री किया जाए4: बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम ट्रस्ट के अच्छे बर्ताव रखने हेतु पुलिस को निर्देश जारी किया जाए5: ट्रस्ट संस्था पर लिखे गए फर्जी मुकदमों को वापस लिया जाए6: ट्रस्ट या संस्था पर मुकदमा लिखे जाने से पहले जिलाधिकारी से अनुमति लेने का प्रावधान बनाया जाए👍👍👍👍सभी साथी ध्यान दें यह सभी कानून 1 दिन में नहीं होंगे लेकिन हम सभी साथियों की एकता से एक दिन जरूर होंगे👍👍👍👍ट्रस्ट सुरक्षा परिषद फाउंडेशन रजिस्टर्ड के मुख्य उद्देश्य (1) रेप ,दहेज,कन्या भ्रूण हत्या,भ्रष्टाचार, इन घिनोने क्रत्य को जड़ से उखाड़ फेकना।(2)समाज के भारतीय बालाक एव बालिकाओ हेतु सिलाई कढाई ।(3)सामाज में व्यापत छुआ छूत ऊॅच नीच तथा जाति धर्म की वशमता को सामप्त के लिए व्यापक प्रचार व प्रसार करना (4)अधिकारों की जानकारी देना व विधिक सहायता के लिए शिविरो का आयोजन करना ।(5)समाज को साक्षर बनाने के लिए सर्वशिक्षा , शिक्षा गारन्टी योजना के बारे में लोगो का ज्ञान कराना व बौद्धक शिक्षा का ज्ञान कखना (6)शारीरिक तथा मानसिक रूप से अक्ष्म व्यक्तियो हेतु कल्याणकारी कार्यो का सम्पादन करना तथा इन लोगो के रहने के लिए निशुल्क आश्रम बनाना (7)संस्था के माध्यम से समस्त भारतीय के बालक एव बालिकओं हेतु शिक्षा के साथ साथ सरकार से अनुमति लेकर तकनीकि शिक्षा का ज्ञान करवाना व औद्योगिक क्षेत्र में विकास के कार्यो को करना ।{9}शाराब मादक पदार्थो का सेवन करने वालों की लत छुडाने के लिए सरकार के कार्यक्रमों के अनुसार नशा उन्मूलन एवं पुर्नवास केंद्र स्थापित करना व अवैध रूप से बिक रही शराब को बन्द करवाना(10)दहेज प्रथा अंधविश्वास एवं सामाजिक कुरीतियों को दूर करने का प्रयास करना (11)निर्धन तथा कमजोर वर्ग की बालिकाओं के लिए निशुल्क छात्रावास वाचानलय ।(12)आम जनता के उपयोग के लिए धमार्थ कम्प्यूनिटी हाल ,बरातघर, वृद्धआश्रम, बालआश्रम महिला आश्रम,अनाथालय, प्याऊ,धर्माथ डिस्पेन्सरीव,निःशुल्क स्टुडियो, रात्रि निवास,मूकबधिरो के कल्याण हेतु समरत कायक को प्रचार व प्रसार करना ।(13) कोई भी महिला अगर किसी भी समस्या या किसी से परेशान हे तो हमारी संस्था उसे 24, घन्टे के अन्दर महिला की समस्या का निराकरण करवाएगी ।और भी कई मुद्दे जिस पर हमारी संस्था काम करेगी 🙏🏻आई जुड़े देश हित के लिए 🙏🏻👩🏻‍⚕बहन बिटियो के सम्मान में बाल वनिता महिला वृद्ध आश्रम संस्था रजिस्टर मैदान में राष्ट्रीय अध्यक्षवनिता कासनियां पंजाब

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